क्या तुम जानते हो कि हम सब भारत के नागरिक हैं? और नागरिक होने के नाते हमारे कुछ बुनियादी अधिकार भी हैं? हमारे संविधान में अन्य बातों के अलावा इन अधिकारों के बारे में भी लिखा है। संविधान यानी एक ऐसा दस्तावेज जिसमें देश के कामकाज, देश के नियम-कानून, देश में रहने वालों के हक, देश के प्रति उनकी जिम्मेदारियों के बारे में लिखा गया है। हर आजाद देश का एक ऐसा संविधान होता है।
यह तो हुई किसी एक देश और उसके संविधान की बात। लेकिन पूरी दुनिया के स्तर पर भी एक संस्था है, जिसने दुनिया भर के लोगों के लिए कुछ बुनियादी हक तय किए हैं। इस संस्था का नाम है - संयुक्त राष्ट्र संघ। यह 24 अक्टूबर, 1945 को बनाई गई थी। उन्हीं दिनों दूसरा विश्वयुद्ध खत्म हुआ था, और दुनिया के सभी आजाद देशों को यह चिंता थी कि कहीं फिर से ऐसा युद्ध न छिड़ जाए! इसलिए इस संघ ने दुनिया में शांति और सुरक्षा के लिए एक लिखित दस्तावेज तैयार किया। यह सभी सदस्य देशों की सहमति से बना था।
दस्तावेज में लिखी बातों को अंजाम देने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने कई अलग-अलग समितियाँ तथा कोष भी बनाए हैं। इनमें से एक है संयुक्त राष्ट्र कोष, जिसे तुम यूनीसेफ (अंग्रेजी में संक्षिप्त) नाम से जानते हो। यूनीसेफ दुनिया भर में बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा और उनकी उचित देख-रेख के लिए काम करता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ बच्चों के लिए भी उतना ही चिंतित है जितना बड़ों के लिए। इसी चिंता के चलते इस संघ ने अपनी महासभा की 20 नवंबर, 1959 की बैठक में बच्चों के हकों का एक घोषणा-पत्र पर जारी किया। लंबे समय के बाद 20 नवंबर, 1989 को संघ में शामिल देशों ने इस पर अपनी पूरी सहमति दी। इस घोषणा-पत्र पर दस्तखत करने वाले देशों में भारत भी शामिल है।
यह घोषणा-पत्र तीन भागों में है। ये तीनों भाग 54 अनुच्छेदों (पैराग्राफ) में बँटे हैं। इनमें बच्चों की रक्षा, उनके विकास आदि के लिए कुछ बातों पर सहमति जाहिर की गई है। इन बातों को तय करते वक्त यह ख्याल रखा गया है कि प्रत्येक देश की परंपरा और संस्कृति को ध्यान में रखते हुए बच्चों के जीने के हालातों में सुधार किए जाएँ। इस दस्तावेज में दुनिया भर के बच्चों के लिए कुछ बुनियादी हकों का जिक्र भी किया गया है। इनमें से कुछ खास-खास यहाँ दिए जा रहे हैं -
1. प्रत्येक बच्चे को जीने का हक है।
2. उसे उचित देखभाल और खाने-पीने का अधिकार है।
3. यह माना जाता है कि बच्चे के व्यक्तित्व का पूरा और उचित विकास परिवार के बीच ही हो सकता है। ऐसी जगह जहाँ खुशी, प्रेम और आपसी समझ-बूझ हो। इसलिए उसे परिवार में रहने का हक है।
4. प्रत्येक बच्चे को स्वास्थ्य सुविधाएँ पाने का अधिकार है।
5. उसे पढ़ाई-लिखाई के बराबर मौके पाने का हक है।
6. प्रत्येक बच्चे को उससे जुड़े हर मुद्दे पर अपनी बात कहने का हक है।
7. प्रत्येक बच्चे को अपनी बात कहने और जताने की छूट का हक है। इसमें वह बिना किसी सीमा के मौखिक, लिखित या छपे रूप में, कला रूप में या अपनी पसंद के किसी भी अन्य तरीके से सभी तरह की जानकारी और विचार माँग सकता है और दे भी सकता है।
8. प्रत्येक बच्चे को आराम करने, खेलने और अपनी उम्र के हिसाब से मनोरंजन करने और सांस्कृतिक तथा कलात्मक गतिविधियों में स्वतंत्र रूप से भाग लेने का हक है।
9. बच्चों को शांतिपूर्ण तरीके से इकट्ठा होने और अपना संगठन बनाने का हक है।
10. प्रत्येक बच्चे को आर्थिक और शारीरिक शोषण से बचने का पूरा हक है।
11. हर बच्चे को यह अधिकार है कि उसकी निजी जिंदगी, घर-परिवार और पत्र-व्यवहार पर गैर-कानूनी ढंग से हस्तक्षेप न हो।
12. युद्ध, बाढ़, सूखा, महामारी, भूकंप जैसी मुसीबतों के समय सबसे पहले राहत पाने का अधिकार है।
13. प्रत्येक बच्चे को अपने हकों और भलाई के लिए कानूनी तौर पर हिफाजत का हक है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस घोषणा के साथ-साथ कई देशों ने अपने स्तर पर बच्चों के लिए कुछ बातें तय की हैं। जैसे, 22 अगस्त 1974 को भारत सरकार ने एक संकल्प लिया था। इसमें बच्चों की भलाई के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनाने पर विचार किया गया। विचार-विमर्श के बाद कुछ बातें तय की गईं -
1. देश के बच्चे सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण धरोहर हैं। उनकी देखभाल और चिंता करना हमारी जिम्मेदारी है।
2. बच्चों का पूर्ण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास हो पाए, यह ख्याल रखना हमारी जिम्मेदारी है। इसके लिए उन्हें जन्म से पहले और बाद में और बढ़त की पूरी उम्र में पर्याप्त सेवाएँ देना देश और राज्य की नीति होगी।
3. देश के विकास के लिए अलग-अलग कार्यक्रमों को बनाते समय बच्चों, माताओं और विकलांगों का खास ख्याल रखा जाएगा, यह तय किया गया है। इसमें बच्चों की शिक्षा, गरीब बच्चों की देखभाल, कामकाजी और बीमार माताओं की हिफाजत और शारीरिक अथवा मानसिक चुनौती झेल रहे बच्चों की देखभाल को प्राथमिकता दी जाएगी।
4. एक राष्ट्रीय बाल बोर्ड बनाया जाएगा जो अलग-अलग जरूरी सेवाओं की व्यवस्था, उनकी जाँच-परख और आपसी तालमेल बनाए रखने का काम करेगा।
5. बच्चों की भलाई के कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जाएगा। इनके विकास के लिए अलग-अलग संगठनों, संस्थाओं, न्यासों से हर संभव मदद ली जाएगी।
6. इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए राज्य की सरकारें जरूरी कानूनी या और कोई (प्रशासनिक) सहायता उपलब्ण कराएँगी।
7. इन उद्देश्यों तक पहुँचने में अपनी भागीदारी निभाने के लिए भारत सरकार अपने नागरिकों और स्वयंसेवी संगठनों से भी अनुरोध करती है।
बहरहाल, यह तो हुई दस्तावेजों में दर्ज अधिकारों और कायदों की बात। लेकिन वास्तव में देश, राज्य, नगर या गाँव में बच्चों की क्या स्थिति है? क्या तुम यह जानते हो कि तुम्हारे ये अधिकार या हक हैं? क्या सही मायनों में तुम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में इनका इस्तेमाल कर भी पाते हो? यह सब तो तुम ठीक-ठीक बता सकते हो। अपने आसपास नजर दौड़ाओ, याद करो कि तुम्हें कब-कब कौन से अधिकार मिलते हैं, मिले हैं और कौन से नहीं।
फिलहाल हमने चकमक के अब तक प्रकाशित 126 अंकों में मेरा पन्ना में छपी तुम्हारी रचनाओं में इसी तरह की एक खोज-पड़ताल की है। कुछ रचनाएँ और संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी बाल अधिकार दस्तावेज के कुछ अनुच्छेद हम यहाँ साथ-साथ प्रकाशित कर रहे हैं। इसका उद्देश्य तुम्हें तुम्हारे हकों के प्रति सचेत करना तो है ही, साथ ही माता-पिता, अभिभावक, शिक्षक तथा ऐसे ही अन्य व्यक्तियों का ध्यान इस ओर खींचना भी है।
अनुच्छेद - 14
समझौते में शामिल देश विचारों, अंतरात्मा और धर्म की आजादी के बच्चे के अधिकार सुनिश्चित करेंगे।
निकोलन बर्न, पाँचवीं, हरदा, म.प्र. का कहना है -
मैं रोज स्कूल जाता हूँ। हमारी टीचर पूजा-पाठ वाली हैं, इसलिए मेरी उनके साथ जमती नहीं है। वैसे तो मेरा स्कूल मुझे बहुत अच्छा लगता है। दोस्त हैं, अपने यार हैं, मस्ती में स्कूल आता-जाता हूँ।
एक दिन मैं कक्षा में बैठा था। तो हमारी बड़ी मैडम (प्रधानाध्यापिका) कक्षा में आई। सब बच्चों ने जयहिंद कहा तो वो बैठ गई। फिर वो भगवान के बारे में अंट-संट बताने लगीं। तो मैं उठा और मैंने कहा, भगवान मुझे कभी दिखे भी नहीं और आप अपनी ही लगाए जा रही हैं। मैंने यह कहा तो मैडम चिढ़ गई और मुझे कक्षा से बाहर कर दिया।
दूसरे दिन मैं स्कूल गया तो मैडम ने कहा, 'तुम्हारे घर से किसी को बुलाकर तुम्हारी 'टीसी' निकलवाओ।'
(अप्रैल, 1990)
अनुच्छेद - 16
किसी भी बच्चे की निजता, परिवार, घर और पत्र-व्यवहार पर मनमाने और गैरकानूनी ढंग से हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा।
विप्लव उपाध्याय, सातवीं, देवास, म.प्र. का कहना है -
एक बार जब मैं स्कूल गया तो मैंने देखा कि मेरे कुछ दोस्त बीच की माँग निकालकर आए थे।
वे बहुत ही सुंदर लग रहे थे। मैंने भी बीच की माँग निकालना शुरू कर दी। कुछ दिनों बाद ये बात मेरे पापा को मालूम हुई, तो उन्होंने मुझे समझाया कि, बेटा बीच की माँग तो अवारा लड़के निकालते हैं। पर मैंने फिर बीच की माँग निकालना शुरू कर दी। मुझे पापा ने खूब समझाया - खूब समझाया, पर मैं नहीं माना। अंत में पापा ने मेरी गंजी ही करवा दी।
(जनवरी, 1991)
अनुच्छेद - 19
समझौते में शामिल देश ऐसे सभी उचित कानूनी, प्रशासनिक, सामाजिक और शैक्षणिक उपाय करेंगे जिनसे माता-पिता या अन्य किसी व्यक्ति की देख-रेख में रह रहे बच्चों को सभी प्रकार की शारीरिक और मानसिक हिंसा, चोट अथवा अपमान, उपेक्षा अथवा उपेक्षाजनक व्यवहार, दुर्व्यवहार अथवा शोषण से बचाया जा सकेगा।
शांतिलाल, आठवीं, मानकुंड, देवास, म.प्र. का कहना है -
एक दिन मैं स्कूल नहीं गया तो मेरे पापा बोले, क्यों रे, स्कूल क्यों नहीं गया। मैंने कहा स्कूल में मेरी पिटाई होती है। एक दिन स्कूल गया, तो मैं घर से, सर ने जो बोला था उसको याद करके नहीं गया। उस दिन भी मेरी पिटाई हुई। जब घर पर मैं पहुँचा और पापा ने सुना कि इसका मन पढ़ाई में नहीं लगता तो पापा ने भी दो-चार चाँटे लगा दिए।
मैं गाँव छोड़ कर मामा के यहाँ चला गया। जब मामा ने सुना कि पढ़ाई के डर से भागकर आया हूँ तो मामा ने भी मुझे मारकर भगा दिया।
(जनवरी, 1989)
अनुच्छेद - 23
मानसिक अथवा शारीरिक रूप से विकलांग बच्चे को पूर्ण और अच्छी जिंदगी का अधिकार है। विकलांग बच्चे को विशेष देखभाल पाने का अधिकार है।
कक्षा पाँच के बच्चे, गाँव पंपालिया, राजस्थान (जुलाई, 1988) -
हमारा साथी गोपाल पूरी तरह विकलांग है। यह पैरों से चल नहीं पाता है। हम सब इधर-उधर फिरते रहते हैं। ये बैठा रहता है। इसकी सरकार कोई सुनवाई नहीं कर रही है। गाँव में स्कूल होने के कारण कक्षा पाँच तक पढ़ रहा है। इसके लिए कक्षा छह की क्या व्यवस्था होगी?
(जुलाई, 1988)
अनुच्छेद - 27
1. हर बच्चे को उसके भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक विकास के लिए समुचित जीवन-स्तर पाने का अधिकार है।
2. बच्चे के माता-पिता या उसकी देखभाल का दायित्व सँभाल रहे व्यक्तियों की जिम्मेदारी है कि वे अपनी योग्यताओं और वित्तीय क्षमताओं के अनुरूप, बच्चे के विकास के लिए आवश्यक स्थितियाँ उसे उपलब्ध कराएँ।
प्रदीप कुमार सेठ, ग्यारहवीं, सीधी, म.प्र. का कहना है -
कुछ दिनों पहले की बात है। रात सात-आठ बजे जैसे ही मैं पढ़ने बैठा, दरवाजे से आवाज आई, 'रोटी दे दो।'
आवाज जानी-पहचानी थी, क्योंकि यही लड़का कई बार इसी तरह रोटी माँगकर ले जा चुका था। मैं इसके बारे में इतना ही जानता था कि वह माँगता है, और इसी से जी रहा है। मैंने देखा वह उस जनवरी की कड़कड़ाती ठंड में सिर्फ एक फटी टी-शर्ट पहने था। पैरों में जूते भी थे, ढीले-ढीले से। वह ढीली-ढीली पैंट भी पहने था, जिसे देखने से साफ जाहिर होता था कि वह भी माँगी हुई है और जो, उसके नाप की न थी। उसका चेहरा तो गोरा था, पर मैला-सा। बाल भूरे-भूरे, उलझे हुए थे। कुल मिलाकर वह नन्हा भिखारी लग रहा था। उसकी उम्र दस साल के लगभग रही होगी। कई दिनों से सोच रहा था, इससे इसके बारे में पूछूँगा। आज अच्छा मौका था। मैंने उससे पहला सवाल किया, 'तुम्हारा नाम क्या है?'
'रामदास।' उसने उत्तर में सिर्फ अपना नाम लिया था।
'तुम्हारे माँ-बाप कहाँ हैं?' मैंने छूटते ही प्रश्न किया।
'पता नहीं, मर गए।'
'फिर तुम्हें किसने पाला?'
'चाचा-चाची ने।'
'कहाँ हैं वह सब?'
'पता नहीं, कहीं चले गए छोड़कर।'
'अकेले हो?'
'हाँ।''
'कहाँ रहते हो?'
'उस सामने वाली झोंपड़ी में।'
'बड़े होकर क्या करोगे?'
'काम।'
'क्या काम?'
'कोई भी, जो मिलेगा।'
'अभी काम क्यों नहीं करते?'
'अभी छोटे हैं।'
उसके जवाब में मैं उसे देखने लगा था, फिर पूछा, 'यहीं रहोगे या बाहर जाओगे?'
'यहीं रहेंगे। कहाँ जाएँगे?' उसने भी मुझ पर एक सवाल ठोक दिया। इसके बाद मैं चुप होकर सोचने लगा। फिर मैंने शाम को बची दो रोटियाँ व सब्जी लाकर दी। उसे कुछ पैसे भी दिए। उसने रोटियाँ ले लीं, पैसे जेब में रखे और चुपचाप चला गया। उसके चेहरे पर बच्चों जैसी मुस्कराहट थी। मैंने देखा उस झोपड़ी के सामने ऐसे ही बच्चे आग जलाकर ताप रहे थे। वह भी उन्हीं के बीच चला गया।
(अगस्त, 1989)
अनुच्छेद - 28
1. बच्चों को शिक्षा का अधिकार है और समान अवसर के आधार पर यह सभी को मिलना चाहिए।
सविता जैन, चौथी, मड़देवरा, छतरपुरा, म.प्र. का कहना है -
एक दिन मैंने अपनी मम्मी से कहा, 'मम्मी मुझे स्कूल को देरी हो रही है, खाना बना दो।'
मेरी मम्मी बोलीं, 'आज मुझे स्कूल नहीं जाना है, घर का काम करना है।'
मैंने कहा, 'मैं तो स्कूल जाऊँगी।'
मम्मी ने मुझे दो चाँटे जमा दिए। इतने में पापाजी घर आए, तो पापा ने पूछा, 'क्या हो गया?'
मैंने पापा से कहा, 'मम्मी ने मारा है।'
पाना ने पूछा, 'क्यों?'
मैंने कहा, 'मम्मी कहती हैं काम करो, स्कूल मत जाओ।'
पापा ने मम्मी से कहा, 'तुम्हारा काम तो गया भाड़ में, स्कूल जाने दो।'
मैं खुश होकर स्कूल चली गई।
(अगस्त, 1992)
2. स्कूल में अनुशासन लागू करने के तरीके बच्चे के मन को चोट पहुँचाने वाले न हों। वे मानवीय गरिमा के अनुरूप हों।
विवेक कुलश्रेष्ठ, सातवीं, ग्वालियर, म.प्र. का कहना है -
एक दिन हमारी कक्षा में गणित के सर ने एक सवाल पूछा। पूरी कक्षा में केवल मैंने ही सही उत्तर दिया। मैं बहुत खुश था कि सर मुझे शाबाशी देंगे। सर मेरे उत्तर से खुश तो हुए पर उन्होंने मुझसे कहा कि चलो सब लड़कों को एक-एक चाँटा लगाओ। मैं डर गया। मैंने कहा कि मैं चाँटा नहीं लगा सकता। मुझे मालूम था कि स्कूल के बाहर मुझे सब मिलकर मारेंगे। फिर अपने सहपाठियों को इस बात पर मारना मैं अच्छा भी नहीं समझता था। मैंने कह दिया, 'सर मैं चाँटा नहीं लगा सकता।'
सर ने लाल-लाल आँखें निकालकर कहा, 'अच्छा तू चाँटा नहीं लगा सकता तो आजा मैं लगाना सिखाऊँ।'
यह कहकर उन्होंने मेरे गाल पर पूरे जोर-से थप्पड़ मार दिया। मेरे आँसू निकल पड़े। पूरे दिन मुझे इस बात का दुख होता रहा कि मेरे सही जवाब का इनाम क्या बस यह थप्पड़ ही था?
(नवंबर-दिसंबर, 1993)
शंकर ठाकुर, पाँचवीं, पलिया पिपरिया, होशंगाबाद का कहना है -
हम स्कूल में कबड्डी खेल रहे थे तो मैं कबड्डी कहने के लिए गया था मुझे पटक दिया। मेरा पैंट गोबर में खब गया। तो मैं घर गया कपड़ा बदलने। घर से स्कूल आया। गुरुजी बोले तुम कहाँ गए थे तो मैंने कहा, मैं कबड्डी खेल रहा था। मेरे कपड़े गोबर में खराब हो गए। कपड़े बदलने गया था। गुरुजी ने बहुत मारा और कहा, तुम कहाँ गए थे?
(फरवरी, 1989)
अनुच्छेद - 31
आराम करने, खेलने, अपनी उम्र के हिसाब से मनोरंजन करने और सांस्कृतिक तथा कलात्मक गतिविधियों में स्वतंत्र रूप से भाग लेने का हक प्रत्येक बच्चे को है।
गोपाल पटेल, टिमारिया छोटा, देवास का कहना है -
मन तरसे भाई मन तरसे
बाल मेला जाने को मन तरसे
मन तरसे भाई मन तरसे
चित्र बनाने को मन तरसे
मन तरसे भाई मन तरसे
कठपुतली बनाने को मन तरसे
मन तरसे भाई मन तरसे
खेल खेलने को मन तरसे
(जुलाई, 1988)
अनुच्छेद - 32
आर्थिक शोषण और जोखिम भरे अथवा शिक्षा में बाधा डालने वाले कार्यों से बचने का अधिकार प्रत्येक बच्चे को है।
श्रीराम कोरकू, छींदापानी, केसला, बैतूल, म.प्र. का कहना है -
मैं ढोर चरावे जंगल जात हूँ। घर के ढोर लेके सबेरे रोटी बाँध के जात हूँ। दुपहरिया में बैठ के नदिया के पास साथ बारे मोड़ा-मोड़ियों के साथ खात हूँ।
कई बार जंगल में सुअर, साँभर मिल जात हैं। हमारे गाँव की मेंड़ से गोला गट्टू फोड़वे की लेन बँधी है। हम गोला गट्टू बीनवे हे नहीं जात हैं। हमारे गाँव से कुछ जने जात हैं। हमारे गाँव में स्कूल है। पर घर से पढ़वे नहीं भेजे। काहेसे कि पढ़वे जैहे तो ढोर कौन चरेहे! गाँव में गंज मोड़ा-मोड़ी हैं। जोड़ के जोड़ मिलके खेलत हैं।
(अप्रैल, 1990)